बिहार की राजधानी पटना से करीब 250 किमी दूर है भागलपुर. रेल और सड़क मार्ग के जरिए यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है.
ज़िला प्रशासन की वेबसाइट के अनुसार यह "बिहार की रेशम नगरी" है. वेबसाइट पर ही ज़िले का संक्षिप्त इतिहास भी पढ़ने को मिल जाएगा. जिसके अनुसार भागलपुर का वर्तमान चंपानगर और पूर्व में "चंपा" के नाम से जाना जाने वाला यह शहर अंग प्रदेश की राजधानी भी थी.
बौद्ध साहित्य के अनुसार पूर्व का चंपा एक बहुत ही खुबसूरत नगर था. जहां बुद्ध का भी आए थे. और कहते हैं कि बुद्ध को चंपा इतना अच्छा लगा कि अपने महापिरिनिर्वाण से पूर्व उन्होंने चंपा आने की इच्छा भी जताई थी.
आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की ओर से प्रकाशित 1879-80 में ए. कन्निंघम के बिहार और बंगाल दौरे की एक रिपोर्ट में कहलगांव की रिपोर्टिंग के दौरान लिखा था कि उस वक़्त बिहार में कहलगांव को लेकर एक लोकोक्ति प्रचलित थी,
ये सब पुरानी बातें हो गईं. आज का भागलपुर बिहार का सिल्क सिटी है. यहां की आबादी 30 लाख से अधिक हो गई है. छह विधानसभा क्षेत्र हैं. जिसमें 16 प्रखंड और 1515 गांव हैं.
इस बार के लोकसभा चुनाव में कुल नौ प्रत्याशी मैदान में है. लेकिन टक्कर दो के बीच ही मानी जा रही है. यूपीए गठबंधन ने राजद के अपने वर्तमान सांसद बुलो मंडल को फिर से मैदान में उतारा है.
जबकि एनडीए में ये सीट जदयू के खाते में चली गई है. जदयू ने बुलो के ख़िलाफ़ नाथनगर के अपने विधायक अजय मंडल को सामने किया है. बाकी अन्य पार्टियां मसलन बसपा, आप और निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव लड़ रहे हैं. लेकिन उन्हें रेस से बहुत दूर माना जा रहा है.
इस तरह भागलपुर में लोकसभा चुनाव का सबसे बड़ा फैक्टर मंडल फैक्टर बन गया है. एक मंडल बुलो तो थे ही, अब उनके ख़िलाफ़ अजय मंडल को खड़ा करके एनडीए ने एक बड़ा दांव खेला है.
लेकिन मंडल और मंडल की इस लड़ाई में इस बार कमंडल कहां है? इस सवाल का जवाब देने से पहले ही तिलकामांझी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ योगेंद्र मुस्कुराने लगे. उन्होंने पूछा "क्या आपका मतलब बीजेपी से है?"
दरअसल सवाल तो यही है कि बीजेपी ने यह सीट क्यों छोड़ दी? जबकि पिछली बार उनके उम्मीदवार शाहनवाज हुसैन करीब 9000 के मामूली वोटों के अंतर से ही हारे थे.
डॉ योगेंद्र जो पिछले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव भी लड़े थे, कहते हैं, "ये मजबूरी में लिया गया फ़ैसला था. कोई भी अपने हारे हुए उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारना चाहता. भाजपा की हारी हुई सीटें इस बार जदयू को मिली हैं. भागलपुर में भी ऐसा ही हुआ. पिछली बार जिस तरह शाहनवाज हारे थे और उन्होंने भीतरघात का आरोप लगाए थे, कमोबेश वैसी ही परिस्थितियां इस बार भी थी. यही वजह है भाजपा ने यह सीट जदयू के खाते में डालकर बहुत सेफ खेला है."
सवाल यह भी उठता है कि क्या इस फ़ैसले से स्थानीय भाजपाई नेताओं में असंतोष और ज्यादा नहीं बढ़ेगा?
डॉ योगेंद्र कहते हैं, "असंतोष तो है ही. बहुत दिनों तक तो भाजपा के स्थानीय नेताओं ने चुनाव प्रचार से दूरी बना ली थी लेकिन मोदी की सभा होने के बाद से माहौल फिर बदला है. अब मोदी के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं."
बीते पांच साल से भागलपुर में भाजपा के तीन बड़े नेता शाहनवाज हुसैन, अश्विनी चौबे और निशिकांत दूबे अपने लिए लोकसभा टिकट की तैयारी कर रहे थे. लेकिन एनडीए के सीट बंटवारे में जब भागलपुर जदयू के खाते में चला गया तो तीनों नेताओं ने भागलपुर की ज़मीन छोड़ दूसरे जगहों पर अपना आसन जमा लिया.
टिकट कटने के बाद ट्विटर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम लेकर दुख जताने वाले शाहनवाज इन दिनों स्टार प्रचारक बनकर पश्चिम बंगाल चले गए हैं. निशिकांत दूबे को गोड्डा से टिकट मिल गया है और अश्विनी चौबे पार्टी ने उन्हें बक्सर में भेज दिया है.
डॉ योगेंद्र कहते हैं, "ये तीनों नेता अकेले नहीं गए हैं. बल्कि अपने साथ कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भी साथ ले गए हैं. भागलपुर में चुनावी प्रचार में मुश्किल से आपको बीजेपी कार्यकर्ता-समर्थक दिख जाएं."
क्या इससे एनडीए के उम्मीदवार अजय मंडल को नुकसान नहीं होगा? डॉ योगेंद्र का कहना है, "नुकसान तो वैसे भी हो रहा है. पिछली बार जिन कारणों से बीजेपी हारी थी, वही कारण आज जदयू के लिए है. पिछली बार नोटा के करीब 11 हजार वोट पड़े थे. इस बार हो सकता है कि वो संख्या ज्यादा हो जाए.''
इसमें कोई दो राय नहीं कि भागलपुर की इस लड़ाई में 'मंडल फैक्टर' सबसे आगे है. ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने बहुत आसानी से भागलपुर सीट जेडीयू के नाम कर दी. बल्कि उन्हें पता था कि मंडल समुदाय के करीब 4.5 लाख वोट महत्वपूर्ण हो सकते हैं.
लेकिन मंडल समुदाय के ये वोट किस मंडल को मिलेंगे? बुलो को या फिर अजय को?
दैनिक भास्कर भागलपुर के स्थानीय संपादक राजेश रंजन कहते हैं, "इसके लिए हमें मंडल वोटों के गणित को समझना होगा. गणित ये है कि मंडल भी दो समूहों में बंटे हुए हैं. एक मंडल वो हैं जो गंगा के इस पार के हैं. दूसरे मंडल गंगा के उस पार के हैं. उन्हें गंगौता पुकारा जाता है.''
''बुलो मंडल गंगा के उस पार के हैं. अजय मंडल इस पार से हैं यानी नाथनगर से, इसलिए इनका समर्थन इस क्षेत्र में अधिक है. लेकिन अगर पूरे मंडल समुदाय की बात की जाए तो उसमें बुलो मंडल की पैठ ज्यादा अच्छी है.''
''इसके पीछे ढेर सारी वजहें हैं. पहला तो बुलो की छवि एक जननेता के रूप में रही है. दूसरी तरफ अजय व्यापारी जगत से राजनीति में आए हैं."
हालांकि डॉ योगेंद्र इस पर दूसरा नजरिया रखते हैं, वे कहते हैं, "पिछली बार शाहनवाज के हारे हुए वोटों का अंतर नोटा से अधिक था. इस बार भी नोटा को पड़ने वाले वोट बहुत मायने रखेंगे. मुझे आशंका इस बात की भी है कि कहीं बीजेपी को पड़ने वाले वोट अजय मंडल और जदयू के नाम के कारण नोटा पर नहीं चला जाए."
ज़िला प्रशासन की वेबसाइट के अनुसार यह "बिहार की रेशम नगरी" है. वेबसाइट पर ही ज़िले का संक्षिप्त इतिहास भी पढ़ने को मिल जाएगा. जिसके अनुसार भागलपुर का वर्तमान चंपानगर और पूर्व में "चंपा" के नाम से जाना जाने वाला यह शहर अंग प्रदेश की राजधानी भी थी.
बौद्ध साहित्य के अनुसार पूर्व का चंपा एक बहुत ही खुबसूरत नगर था. जहां बुद्ध का भी आए थे. और कहते हैं कि बुद्ध को चंपा इतना अच्छा लगा कि अपने महापिरिनिर्वाण से पूर्व उन्होंने चंपा आने की इच्छा भी जताई थी.
आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की ओर से प्रकाशित 1879-80 में ए. कन्निंघम के बिहार और बंगाल दौरे की एक रिपोर्ट में कहलगांव की रिपोर्टिंग के दौरान लिखा था कि उस वक़्त बिहार में कहलगांव को लेकर एक लोकोक्ति प्रचलित थी,
ये सब पुरानी बातें हो गईं. आज का भागलपुर बिहार का सिल्क सिटी है. यहां की आबादी 30 लाख से अधिक हो गई है. छह विधानसभा क्षेत्र हैं. जिसमें 16 प्रखंड और 1515 गांव हैं.
इस बार के लोकसभा चुनाव में कुल नौ प्रत्याशी मैदान में है. लेकिन टक्कर दो के बीच ही मानी जा रही है. यूपीए गठबंधन ने राजद के अपने वर्तमान सांसद बुलो मंडल को फिर से मैदान में उतारा है.
जबकि एनडीए में ये सीट जदयू के खाते में चली गई है. जदयू ने बुलो के ख़िलाफ़ नाथनगर के अपने विधायक अजय मंडल को सामने किया है. बाकी अन्य पार्टियां मसलन बसपा, आप और निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव लड़ रहे हैं. लेकिन उन्हें रेस से बहुत दूर माना जा रहा है.
इस तरह भागलपुर में लोकसभा चुनाव का सबसे बड़ा फैक्टर मंडल फैक्टर बन गया है. एक मंडल बुलो तो थे ही, अब उनके ख़िलाफ़ अजय मंडल को खड़ा करके एनडीए ने एक बड़ा दांव खेला है.
लेकिन मंडल और मंडल की इस लड़ाई में इस बार कमंडल कहां है? इस सवाल का जवाब देने से पहले ही तिलकामांझी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ योगेंद्र मुस्कुराने लगे. उन्होंने पूछा "क्या आपका मतलब बीजेपी से है?"
दरअसल सवाल तो यही है कि बीजेपी ने यह सीट क्यों छोड़ दी? जबकि पिछली बार उनके उम्मीदवार शाहनवाज हुसैन करीब 9000 के मामूली वोटों के अंतर से ही हारे थे.
डॉ योगेंद्र जो पिछले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव भी लड़े थे, कहते हैं, "ये मजबूरी में लिया गया फ़ैसला था. कोई भी अपने हारे हुए उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारना चाहता. भाजपा की हारी हुई सीटें इस बार जदयू को मिली हैं. भागलपुर में भी ऐसा ही हुआ. पिछली बार जिस तरह शाहनवाज हारे थे और उन्होंने भीतरघात का आरोप लगाए थे, कमोबेश वैसी ही परिस्थितियां इस बार भी थी. यही वजह है भाजपा ने यह सीट जदयू के खाते में डालकर बहुत सेफ खेला है."
सवाल यह भी उठता है कि क्या इस फ़ैसले से स्थानीय भाजपाई नेताओं में असंतोष और ज्यादा नहीं बढ़ेगा?
डॉ योगेंद्र कहते हैं, "असंतोष तो है ही. बहुत दिनों तक तो भाजपा के स्थानीय नेताओं ने चुनाव प्रचार से दूरी बना ली थी लेकिन मोदी की सभा होने के बाद से माहौल फिर बदला है. अब मोदी के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं."
बीते पांच साल से भागलपुर में भाजपा के तीन बड़े नेता शाहनवाज हुसैन, अश्विनी चौबे और निशिकांत दूबे अपने लिए लोकसभा टिकट की तैयारी कर रहे थे. लेकिन एनडीए के सीट बंटवारे में जब भागलपुर जदयू के खाते में चला गया तो तीनों नेताओं ने भागलपुर की ज़मीन छोड़ दूसरे जगहों पर अपना आसन जमा लिया.
टिकट कटने के बाद ट्विटर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम लेकर दुख जताने वाले शाहनवाज इन दिनों स्टार प्रचारक बनकर पश्चिम बंगाल चले गए हैं. निशिकांत दूबे को गोड्डा से टिकट मिल गया है और अश्विनी चौबे पार्टी ने उन्हें बक्सर में भेज दिया है.
डॉ योगेंद्र कहते हैं, "ये तीनों नेता अकेले नहीं गए हैं. बल्कि अपने साथ कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भी साथ ले गए हैं. भागलपुर में चुनावी प्रचार में मुश्किल से आपको बीजेपी कार्यकर्ता-समर्थक दिख जाएं."
क्या इससे एनडीए के उम्मीदवार अजय मंडल को नुकसान नहीं होगा? डॉ योगेंद्र का कहना है, "नुकसान तो वैसे भी हो रहा है. पिछली बार जिन कारणों से बीजेपी हारी थी, वही कारण आज जदयू के लिए है. पिछली बार नोटा के करीब 11 हजार वोट पड़े थे. इस बार हो सकता है कि वो संख्या ज्यादा हो जाए.''
इसमें कोई दो राय नहीं कि भागलपुर की इस लड़ाई में 'मंडल फैक्टर' सबसे आगे है. ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने बहुत आसानी से भागलपुर सीट जेडीयू के नाम कर दी. बल्कि उन्हें पता था कि मंडल समुदाय के करीब 4.5 लाख वोट महत्वपूर्ण हो सकते हैं.
लेकिन मंडल समुदाय के ये वोट किस मंडल को मिलेंगे? बुलो को या फिर अजय को?
दैनिक भास्कर भागलपुर के स्थानीय संपादक राजेश रंजन कहते हैं, "इसके लिए हमें मंडल वोटों के गणित को समझना होगा. गणित ये है कि मंडल भी दो समूहों में बंटे हुए हैं. एक मंडल वो हैं जो गंगा के इस पार के हैं. दूसरे मंडल गंगा के उस पार के हैं. उन्हें गंगौता पुकारा जाता है.''
''बुलो मंडल गंगा के उस पार के हैं. अजय मंडल इस पार से हैं यानी नाथनगर से, इसलिए इनका समर्थन इस क्षेत्र में अधिक है. लेकिन अगर पूरे मंडल समुदाय की बात की जाए तो उसमें बुलो मंडल की पैठ ज्यादा अच्छी है.''
''इसके पीछे ढेर सारी वजहें हैं. पहला तो बुलो की छवि एक जननेता के रूप में रही है. दूसरी तरफ अजय व्यापारी जगत से राजनीति में आए हैं."
हालांकि डॉ योगेंद्र इस पर दूसरा नजरिया रखते हैं, वे कहते हैं, "पिछली बार शाहनवाज के हारे हुए वोटों का अंतर नोटा से अधिक था. इस बार भी नोटा को पड़ने वाले वोट बहुत मायने रखेंगे. मुझे आशंका इस बात की भी है कि कहीं बीजेपी को पड़ने वाले वोट अजय मंडल और जदयू के नाम के कारण नोटा पर नहीं चला जाए."
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