15 जनवरी को कुंभ के पहले शाही स्नान यानी मकर संक्रांति को संगम तट पर जहां अखाड़ों के साधु स्नान कर रहे थे, उनसे कुछ ही मीटर की दूरी पर स्नान कर रहे सफ़ेद वस्त्र धारी कई विदेशी श्रद्धालु भी लोगों के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे.
उन्हीं में अमरीका से आए ऑस्टिन भी थे, जो बीबीसी का माइक देखकर मुस्कराते हुए ख़ुद ही हमारे पास आ गए.
इस दौरान ऑस्टिन और उनके साथी 'गंगा मैया की जय' और 'हर-हर गंगे' का नारा लगा रहे थे. उनके साथ क़रीब दो दर्जन लोग थे जिनमें कई महिलाएं भी थीं. अखाड़ों के साथ ये लोग भी नाचते-गाते और वाद्य यंत्रों के साथ स्नान करने आए थे.
साफ़-सुथरी हिन्दी में ऑस्टिन बताने लगे, "हम लोग पिछले एक हफ़्ते से यहां आए हुए हैं और टेंट में रह रहे हैं. हमारे सभी साथी एक महीने रहकर कल्पवास करेंगे. हमारी कम्युनिटी के 100 से ज़्यादा लोग यहां आए हुए हैं जो अमरीका समेत कई अन्य देशों से भी हैं."
ऑस्टिन उस रैंबो इंटरनेशनल कम्युनिटी के सदस्य हैं, जो दुनिया भर में सनातन धर्म और संस्कृति का प्रचार प्रसार कर रहे हैं. इस कम्युनिटी के ही तमाम लोग इस समय कुंभ में भी आए हुए हैं और एक महीने यहीं रहकर कल्पवास करेंगे.
रैंबो कम्युनिटी के अलावा भी तमाम साधु-संतों के शिविरों में और अखाड़ों में भी बड़ी संख्या में विदेशी श्रद्धालुओं के अलावा विदेशी संत भी दिख जाते हैं.
रैंबो कम्युनिटी की ही एक अन्य सदस्य और जर्मनी के म्यूनिख़ शहर की रहने वाली एनी संन्यासियों के वेश में रहती हैं.
वो कहती हैं, "मैं क़रीब तीन साल से भारत में आती-जाती रहती हूं और अपने गुरु के आश्रम में ही रहती हूं. शांति की खोज में यहां तक आ गई और लगता है कि इसी सनातन धर्म में ये सब मिल सकता है, कहीं और नहीं."
एनी अभी हिन्दी ठीक से नहीं बोल पातीं, लेकिन उनका कहना है कि वो सीख रही हैं और जल्दी ही अच्छी हिन्दी बोलने में सक्षम हो जाएंगी. कुंभ मेले में वो पहली बार आई हैं लेकिन इंटरनेट पर इसके बारे में उन्होंने काफ़ी कुछ पढ़ा है और यहां आकर उन्हें 'दिव्य' अनुभूति हो रही है.
कुंभ में आने वाले विदेशी श्रद्धालु और संत नए साल से ही आने लगे थे. बहुत से श्रद्धालु तो पर्यटक के तौर पर आए हैं और लक्ज़री कॉटेज में रुके हैं लेकिन जहां तक विदेशी संतों का सवाल है तो किसी ने किसी आश्रम, महंत और अखाड़ों से जुड़े हैं और उन्हीं के संपर्क में यहा हैं. अखाड़ों से जुड़े संत शाही स्नान में भी शामिल होते हैं और अखाड़ों की पेशवाई का भी हिस्सा बनते हैं.
आनंद अखाड़े से जुड़े डेनियल मूल रूप से फ्रांस के रहने वाले हैं लेकिन अब वो भगवान गिरि बन गए हैं. भगवान गिरि अखाड़े के महंत देवगिरि के शिष्य हैं और पिछले तीस साल से वो भारत में रहते हुए न सिर्फ़ भारतीय परिधान पहनते हैं बल्कि पूरी तरह से भारतीय संस्कृति में ही रचे-बसे हैं.
विदेशी संन्यासी न सिर्फ़ अखाड़ों में रहकर संतों का जीवन बिता रहे हैं बल्कि कई ऐसे भी हैं जिन्हें महामंडलेश्वर जैसी उपाधियां भी मिली हैं.
महानिर्वाणी अखाड़े से जुड़े स्वामी ज्ञानेश्वर पुरी भी ऐसे ही संत हैं जिन्होंने सालों पहले संन्यास ले लिया था. ज्ञानेश्वर पुरी अपने तमाम देशी और विदेशी शिष्यों के साथ इस बार कुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े के संतों के साथ शाही स्नान भी कर रहे हैं.
विदेशी संन्यासी स्थानीय लोगों के भी आकर्षण का केंद्र हैं. जहां कहीं भी कोई संन्यासी दिखता है लोग उससे बात करने और मेल-जोल बढ़ाने की कोशिश करने लगते हैं, ख़ासकर तब जबकि कोई हिन्दी में बात करता मिलता है.
जौनपुर से आए साठ वर्षीय विद्याशंकर तिवारी आध्यात्मिक रंग में रंगे ऐसे संन्यासियों को देखकर मंत्रमुग्ध नज़र आए. कहने लगे, "सात समुंदर पार के इन लोगों को हमारी संस्कृति इतनी अच्छी लगती है लेकिन अपने देश के लोग इसे नष्ट करने पर तुले हुए हैं."
सेक्टर 14 स्थित जूना अखाड़े के शिविर के भीतर प्रवेश करने पर दोनों ओर नागा साधु धूनी रमाए बैठे थे. आगे जाने पर बड़े से पांडाल में प्रवचन चल रहा था. सामने एक बुज़ुर्ग रूसी महिला मिलीं जो अपने टेंट से निकलकर प्रवचन सुनने जा रही थीं. हल्की सी मुस्कराहट के साथ दोनों हाथ जोड़कर 'ओम नमो नारायण' कहकर उन्होंने अभिवादन किया.
उन्हीं में अमरीका से आए ऑस्टिन भी थे, जो बीबीसी का माइक देखकर मुस्कराते हुए ख़ुद ही हमारे पास आ गए.
इस दौरान ऑस्टिन और उनके साथी 'गंगा मैया की जय' और 'हर-हर गंगे' का नारा लगा रहे थे. उनके साथ क़रीब दो दर्जन लोग थे जिनमें कई महिलाएं भी थीं. अखाड़ों के साथ ये लोग भी नाचते-गाते और वाद्य यंत्रों के साथ स्नान करने आए थे.
साफ़-सुथरी हिन्दी में ऑस्टिन बताने लगे, "हम लोग पिछले एक हफ़्ते से यहां आए हुए हैं और टेंट में रह रहे हैं. हमारे सभी साथी एक महीने रहकर कल्पवास करेंगे. हमारी कम्युनिटी के 100 से ज़्यादा लोग यहां आए हुए हैं जो अमरीका समेत कई अन्य देशों से भी हैं."
ऑस्टिन उस रैंबो इंटरनेशनल कम्युनिटी के सदस्य हैं, जो दुनिया भर में सनातन धर्म और संस्कृति का प्रचार प्रसार कर रहे हैं. इस कम्युनिटी के ही तमाम लोग इस समय कुंभ में भी आए हुए हैं और एक महीने यहीं रहकर कल्पवास करेंगे.
रैंबो कम्युनिटी के अलावा भी तमाम साधु-संतों के शिविरों में और अखाड़ों में भी बड़ी संख्या में विदेशी श्रद्धालुओं के अलावा विदेशी संत भी दिख जाते हैं.
रैंबो कम्युनिटी की ही एक अन्य सदस्य और जर्मनी के म्यूनिख़ शहर की रहने वाली एनी संन्यासियों के वेश में रहती हैं.
वो कहती हैं, "मैं क़रीब तीन साल से भारत में आती-जाती रहती हूं और अपने गुरु के आश्रम में ही रहती हूं. शांति की खोज में यहां तक आ गई और लगता है कि इसी सनातन धर्म में ये सब मिल सकता है, कहीं और नहीं."
एनी अभी हिन्दी ठीक से नहीं बोल पातीं, लेकिन उनका कहना है कि वो सीख रही हैं और जल्दी ही अच्छी हिन्दी बोलने में सक्षम हो जाएंगी. कुंभ मेले में वो पहली बार आई हैं लेकिन इंटरनेट पर इसके बारे में उन्होंने काफ़ी कुछ पढ़ा है और यहां आकर उन्हें 'दिव्य' अनुभूति हो रही है.
कुंभ में आने वाले विदेशी श्रद्धालु और संत नए साल से ही आने लगे थे. बहुत से श्रद्धालु तो पर्यटक के तौर पर आए हैं और लक्ज़री कॉटेज में रुके हैं लेकिन जहां तक विदेशी संतों का सवाल है तो किसी ने किसी आश्रम, महंत और अखाड़ों से जुड़े हैं और उन्हीं के संपर्क में यहा हैं. अखाड़ों से जुड़े संत शाही स्नान में भी शामिल होते हैं और अखाड़ों की पेशवाई का भी हिस्सा बनते हैं.
आनंद अखाड़े से जुड़े डेनियल मूल रूप से फ्रांस के रहने वाले हैं लेकिन अब वो भगवान गिरि बन गए हैं. भगवान गिरि अखाड़े के महंत देवगिरि के शिष्य हैं और पिछले तीस साल से वो भारत में रहते हुए न सिर्फ़ भारतीय परिधान पहनते हैं बल्कि पूरी तरह से भारतीय संस्कृति में ही रचे-बसे हैं.
विदेशी संन्यासी न सिर्फ़ अखाड़ों में रहकर संतों का जीवन बिता रहे हैं बल्कि कई ऐसे भी हैं जिन्हें महामंडलेश्वर जैसी उपाधियां भी मिली हैं.
महानिर्वाणी अखाड़े से जुड़े स्वामी ज्ञानेश्वर पुरी भी ऐसे ही संत हैं जिन्होंने सालों पहले संन्यास ले लिया था. ज्ञानेश्वर पुरी अपने तमाम देशी और विदेशी शिष्यों के साथ इस बार कुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े के संतों के साथ शाही स्नान भी कर रहे हैं.
विदेशी संन्यासी स्थानीय लोगों के भी आकर्षण का केंद्र हैं. जहां कहीं भी कोई संन्यासी दिखता है लोग उससे बात करने और मेल-जोल बढ़ाने की कोशिश करने लगते हैं, ख़ासकर तब जबकि कोई हिन्दी में बात करता मिलता है.
जौनपुर से आए साठ वर्षीय विद्याशंकर तिवारी आध्यात्मिक रंग में रंगे ऐसे संन्यासियों को देखकर मंत्रमुग्ध नज़र आए. कहने लगे, "सात समुंदर पार के इन लोगों को हमारी संस्कृति इतनी अच्छी लगती है लेकिन अपने देश के लोग इसे नष्ट करने पर तुले हुए हैं."
सेक्टर 14 स्थित जूना अखाड़े के शिविर के भीतर प्रवेश करने पर दोनों ओर नागा साधु धूनी रमाए बैठे थे. आगे जाने पर बड़े से पांडाल में प्रवचन चल रहा था. सामने एक बुज़ुर्ग रूसी महिला मिलीं जो अपने टेंट से निकलकर प्रवचन सुनने जा रही थीं. हल्की सी मुस्कराहट के साथ दोनों हाथ जोड़कर 'ओम नमो नारायण' कहकर उन्होंने अभिवादन किया.
Comments
Post a Comment